गिद्धों के इस समाज में लाशों का बंटवारा हो गया है। लाशों के बहाने चुप्पियों का बंटवारा हो गया है। काश, कोई लाश, फिर ज़िंदा हो जाए और किसी से पूछ बैठे कि गोली तुम्हें भी लगी है क्या? तुम तो बिन गोली खाए ही मर गए लगते हो। मारा मैं गया हूं और मर तुम रहे हो। तुम तो अभी तो ज़िदा हो। देखना चाहता हूं कि गिद्ध में बदलता जा रहा यह राजनीतिक समाज क्या जवाब देता है।
सोशल मीडिया पर जाकर देखिये। कैसे इस हमले के बहाने दोनों पक्ष अपनी पुरानी भड़ास मिटा रहे हैं। सब अपने-अपने शत्रु को खोज रहे हैं। पहली पंक्ति में निंदा है, उसके आगे परनिंदा ही परनिंदा है। किसी ने तथाकथित बुद्धिजीवियों को पकड़ लिया है तो किसी ने नॉट इन माइ नेम वालों को तो किसी ने भक्तों अब बोलो, कहां हो कुछ तो बोलो करना शुरू कर दिया है। सबको लगता है कि वही सही है।
इसे WHATABOURTY कहते हैं। जैसे नॉट इन माइ नेम वालों की वजह से कश्मीर में आतंकवाद है या उनकी तख़्ती देखकर सरकार फैसले नहीं कर पा रही है। जो हिंसा की निंदा करता है वो सबके भीतर बैठी हिंसा के तत्वों की भी निंदा करता है। बजाए यह पूछने कि तुम तब बोले तो अब देखते हैं बोलोगे या नहीं, क्या सभी अपने भीतर नहीं झांक सकते कि वो क्या कर रहे हैं। क्या वे खुद अपनी चुप्पी में नहीं झांस सकते, क्या वे ऊना के बाद सड़कों पर निकले थे, रोहित के बाद सड़कों पर निकले थे? आपस में लड़कर वो आतंकवाद का मकसद पूरा नहीं कर रहे हैं? दोनों पक्ष इस हिसाब से हासिल क्या कर रहे हैं? हैवान बन रहे हैं या अपनी इंसानियत तराश रहे हैं?
किसने और किस आधार पर मान लिया गया कि नॉट इन माइ नेम की तख़्ती उठाने वाले अमरनाथ यात्रियों के लिए विचलित नहीं होंगे? आख़िर सरकार की जवाबदेही के सवाल का जवाब यही क्यों है? कैसे यात्रियों से भरी एक बस बिना किसी पंजीकरण या सूचना के समय की पाबंदी का उल्लंघन करते हुए निकल पड़ी? क्या बस वाले सुरक्षा व्यवस्था को देखकर ज़्यादा आश्वस्त हो गए थे? जो भी यात्रा में गया है वही कहता है कि इतनी सुरक्षा होती है कि परिंदा भी पर नहीं मार सकता है। इस बार तो आशंकाओं का अंबार लगा हुआ था। इसलिए जवाब देने की जवाबदेही सरकार की है, नॉट इन माइ नेम की तख़्ती उठाने वालों की नहीं है?
कोई लिख रहा है कि वामपंथी, लिबरल एक्सपोज़ हो रहे हैं। क्या सचमुच इस घटना की यही परिणति है? एक्सपोज़ हमारी चाक चौबंद व्यवस्था में हुई है या बुद्धीजिवियों का खेमा हुआ है? और यह किसने साबित कर दिया कि सारे बुद्धीजीवि एक जैसे सोचते हैं? क्या आप बुद्धीजीवि नहीं हैं? आपको बुद्धीजीवियों से इतनी नफ़रत क्यों हैं? उनकी बातों का जवाब न दे पाने की चिढ़ है या जवाब देने लायक कुछ न कर पाने की हताशा है? एक जनाब ने तो पोस्ट कर दिया कि सभी मुसलमानों को निंदा करनी होगी। जबकि उसी वक्त हज़ारों मुसलमान निंदा कर रहे थे। कौन पागल है जो इस हिंसा का समर्थन करेगा। मगर कोई शातिर तो है जो इस हिंसा के बहाने हम लोग बनाम वे लोग कर रहा है। इतनी जल्दी क्यों मची है निशानदेही करने की,पहले भरोसे को तो आज़मा लो दोस्तो।
क्या अब कोई भी घटना जवाबदेही से मुक्त मानी जाएगी? क्या ऐसा पहले भी होता था? ज़रूर कई लोगों ने कश्मीर को लेकर सरकार की नीतियों की आलोचना की है। बीजेपी के नेता यशवंत सिन्हा ने भी की है। तो क्या सरकार ने आलोचना के बाद अपनी नीति बदल दी है? जब अपनी ही नीति पर चली है तो फिर इसका जवाब सरकार देगी या आलोचक देंगे? नोटबंदी से आतंकवाद खत्म होने का एलान कर दिया गया था। क्या इस पर सवाल करना गुनाह है? पूछने की आज़ादी भले न कम से कम शोक का संस्कार तो बना रहे। हम सब चुप ही रहे। मौन ही रहें।
अमरनाथ यात्रा की तैयारियों की सुरक्षा का भरोसा आज का नहीं है। कई हज़ार सुरक्षा बल रास्ते भर में तैनात होते हैं। उन्हीं का भरोसा है कि हर साल यात्री जाते हैं और भोले को जल चढ़ा कर आ जाते हैं। वो सिर्फ शिव से मिलने नहीं जाते हैं, आतंक के उस भय के ख़िलाफ़ भी यात्रा करते हैं, जो चाहता है कि उस रास्ते से जाने वालों के निशान मिट जाएं। उनका जाना यह भरोसा दिलाता है कि आज भी कुछ लोग आतंक के साये से नहीं डरते हैं। जान जोखिम में डालकर उन रास्तों पर चलने का साहस रखते हैं जहां गोलियों के आने की दिशा और वक्त का पता नहीं चलता है। अमरनाथ की यात्रा साधारण यात्रा नहीं है। यह शिव तक पहुंचने का सबसे दुर्गम रास्ता है। शिव तक पहुंचने में शिव होने की यात्रा है। मृत्यु के भय से ऊपर उठना ही शिव होना है। यात्रियों को पता है कि संसार का संहारक ही उनका संरक्षक है। इन यात्रियों का हम पर अहसान है कि वो जाकर हमें भरोसा दिलाते हैं कि सब तरफ आतंक होगा तब भी अमर
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